#मेरी_कहानी #MeriKahani
-पहली घटना-
ट्रेन में हूँ, मेरी लोअर बर्थ है और एक लड़की मेरे बगल में बैठी है, काफ़ी देर हो गई है। फ़िलहाल वो खिड़की से टेक लगाकर मुँह पर दुपट्टा डाले सो रही है। उसे कहाँ जाना है मैं सोच रही हूँ, मैं एक थकाऊ दिन के बाद सवा दो घंटे से ऊँघती हुई अपनी सीट पर बैठी हूँ। मुझे भयंकर नींद आ रही है और समय बीतने के साथ समझ आ रहा है कि लड़की का रिजर्वेशन नहीं है। वो बेपरवाह ऐसे सो रही है, जैसे सीट...
more... उसकी है और मुझे बैठने की जगह देकर बड़ा उपकार किया हो। वो जिस दोस्त के साथ ट्रेन में चढ़ी थी वो ऊपर टाँग पसारे अपनी सीट पर सो रहा है और मोहतरमा बिना बात किए, पूछे, या ये कहे कि मुझे फलाँ जगह तक जाना है, मेरी सीट पर पैर पसारे खर्राटे ले रही हैं।
-दूसरी घटना-
भोपाल एक्सप्रेस में सामने वाली सीट पर चार लोग बैठे हैं, दो लड़के और दो लड़कियाँ। लड़के एक दूसरे को नहीं जानते, दोनों गोदी में अपना बैग रखे अगले स्टेशन पर उतरने के इंतेज़ार में हैं। लड़कियों को कहाँ जाना है पता नहीं, पर दोनों लड़कियाँ दोस्त हैं, दोनों पालथी मार कर एक दूसरे की ओर मुँह करके बैठी हैं, घर की बनी मठरी खा रही हैं। बातचीत कर रही हैं, ठहाके मार कर हँस रही हैं। पूरी बोगी में दोनों की बातें गूँज रही हैं, हल्ला सा मचा रखा है और सब इरिटेट हो रहे हैं। पूरी बोगी बेसब्र सी बैठी है और कोई ना कोई, किसी पल कहने ही वाला है कि क्या आप थोड़ा धीरे बात कर सकती हैं?
-तीसरी घटना-
तमिलनाडू एक्सप्रेस के जनरल डब्बे में चढ़ रही हूँ, एक 35-36 साल की युवती अपर बर्थ पर बैठी चिल्ला रही है-
"कहाँ चले आ रहे हो? समझ नहीं आ रहा है! चेन खींच दूँगी मैं, जेल में चक्की पीसोगे, ये लेडीज़ कोच है, घुसने दे रहे हैं हम लोग, कम नहीं है क्या, तुम सब मर्द कहाँ चले आ रहे हो?"
(वो जिस अपर बर्थ पर बैठी है वहाँ कोई नहीं बैठा है, वो पैर पसारे बैठी है और अखबार पढ़ रही है)
मैंने अपना बैग रखा, लौट कर उसके पास गई और कहा-
"सुनिए, ये लेडीज़ कोच नहीं है, ये जनरल डब्बा है और बकायदा भोपाल स्टेशन पर अनाउंस हुआ है कि पहला और आखिरी डब्बा जनरल डब्बा है।"
बस फिर क्या था, पूरी दहाड़ के साथ वो चिल्लाने लगी-
"हिन्दुस्तान का कुछ नहीं हो सकता, ये लड़कियाँ, जिन्हें एक दूसरे का साथ देना चाहिए, वो हमेशा एक दूसरे के खिलाफ खड़ी रहती हैं। इस देश का कभी उद्धार नहीं हो सकता, अरे मैं कोई अपने लिए लड़ रही हूँ, मैं तो हम सब के लिए लड़ रही हूँ ब्ला ब्ला ब्ला।"
मैंने उससे कहा- "और मैं इन सब मर्दों के लिए"
मैं अपनी सीट पर लौटी तो बगल की एक बुज़ुर्ग ने कहा- "ठीक कहा बेटा आप ने।"
बगल में एक 18-19 साल की लड़की बोली- "दीदी, त्यौहार का टाइम है, हम सब लोग दूर अपने घर-गाँवों से लौट रहे हैं, डब्बा जनरल हो या लेडीज़, जब तक कोई बदतमीज़ी नहीं कर रहा, साथ चलने में ऐसी भी क्या हाय तौबा है, हर बात पर सींघ अड़ाए कहां से बात बनेगी दीदी। आप ठीक कै आईं।"
-शोभा शमी की कहानी
Source :-This story was shared on some facebook page
Really very true and only truth